नालंदा के पांच गांवों में होली पर नहीं जलते चूल्हे: भक्ति और शांति की अनूठी परंपरा

नालंदा जिले के पांच गांव – पतुआना, बासवन बिगहा, ढीबरापर, नकटपुरा और डेढ़धारा में होली मनाने का तरीका बिल्कुल अलग है। यहां 1983 से चली आ रही परंपरा के अनुसार, होली के दिन न तो चूल्हे जलते हैं और न ही फूहड़ गीत गाए जाते हैं। इस दिन भक्ति और आध्यात्मिकता का माहौल रहता है।
अखंड कीर्तन की परंपरा
होली की संध्या से शुरू होकर 24 घंटे तक लगातार ‘हरे राम हरे कृष्ण’ का जाप किया जाता है। पतुआना निवासी अजब साधु बताते हैं कि इस दिन चूल्हे पर कोई बर्तन नहीं चढ़ता। लोग पहले ही मीठा भोजन तैयार कर लेते हैं और कीर्तन के समापन तक वही भोजन ग्रहण करते हैं।
शुद्ध शाकाहार और भक्ति
समाजसेवी राम राज प्रसाद ने बताया कि यहां के लोग होली के दिन नमक का भी सेवन नहीं करते। शुद्ध शाकाहार और मीठे व्यंजन ही खाए जाते हैं। मांस-मदिरा पर पूरी तरह से प्रतिबंध रहता है।
विवादों से शांति का मार्ग
स्थानीय निवासी रामसुंदर प्रसाद के अनुसार, पहले होली के दौरान अक्सर झगड़े होते थे। बाबा के आदेश पर भक्ति और कीर्तन की यह परंपरा शुरू की गई, जिससे अब गांवों में शांति बनी रहती है। कैलू यादव बताते हैं कि एक सिद्ध पुरुष संत बाबा ने लोगों को यह सलाह दी थी, जो आज 42 वर्षों से निभाई जा रही है।
बसिऔरा में रंगों का आनंद
हालांकि, ये गांव रंगों के आनंद से वंचित नहीं रहते। अखंड कीर्तन के समापन के बाद, बसिऔरा के दिन पूरे उत्साह के साथ रंगों का त्योहार मनाया जाता है।
आधुनिक समय में परंपरा का महत्व
डेढ़धारा गांव के कैलू यादव कहते हैं, “आज के समय में जब होली के नाम पर कई जगह अश्लीलता और नशे का बोलबाला है, हमारी यह परंपरा सकारात्मक संदेश देती है। यह दिखाती है कि त्योहार भक्ति और संयम से भी मनाया जा सकता है।”
नालंदा के इन पांच गांवों की यह अनूठी परंपरा धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखने के साथ-साथ समाज में शांति और सद्भाव का संदेश देती है। पिछले पांच दशकों से चली आ रही यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।